Monday, 20 April 2015

दंभ

अभी अभी तो गिरा था तू
कितनी मुस्किल से संभला था तू
ना जाने फिर फस गया कैसे
इस दंभ के जाल मे तू
ये संसार तो मायावी है
और है इसके चाल अनेक
पर मन का दर्पण सब दिखलाता है
भंवर मे फसे नाव का केवट बन जाता है
नज़रों को इस दर्पण से कभी ओझल मत करना
हवा का रुख़ बदलते देर नही लगती